Indian Thinkers

RADHAKAMAL MUKHARJEE : 7 DEC 1889-1968

West Bengal में इनका जन्म हुआ।

1917-1921 तक कलकत्ता विश्वविधालय में अर्थशास्त्र व राजनीतिक दर्शनशास्त्र को पढ़ाते रहे।

1920 में कलकत्ता विश्वविधालय से “भारतीय ग्रामीण समुदाय में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन” विषय से P.hd की उपाधि प्राप्त की।

1921-1952 तक लखनऊ विश्वविधालय में समाजशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के प्रोफेसर तथा अध्यक्ष के रूप में रहे।

राधाकमल मुखर्जी का समाजशास्त्र में योगदान

समाजशास्त्र का सामान्य सिद्धांत (a general theory of society)

  • पारिस्थितिकी विज्ञान की दृष्टि में समाज एक प्रदेश (Region) है अर्थशास्त्र की दृष्टि से समाज एक वर्ग है समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समाज एक संस्था है और नैतिक दृष्टि से समाज आदर्श मूल्यों चरित्र निर्माण की व्यवस्था है । समाज के एक सामान्य सिद्धांत में समाज के इन सभी पहलुओं को सम्मिलित किया जाता है।
  • समाज एक अखंड व्यवस्था है इसलिए समाज के विषय में वास्तविक ज्ञान तभी हो सकता है । जब हम समाज का एक समग्रता (in totality) के रूप में अध्ययन करें।

समाज एक मुक्त व्यवस्था society as an open system

बंद व्यवस्था (close system) में व्यक्ति का व्यवहार समाज में क्रियाशील शक्तियों द्वारा निर्देशित होता है मुखर्जी ने मुक्त व्यवस्था के तीन लक्षणों का उल्लेख किया है।

  1. The open ecological system of region(प्रदेश) and sustenance (जीवन निर्वाह)

समाज के लोगों को अपने जीवन निर्वाह के लिए अपनी पारिस्थितिगत व्यवस्थाओं जैसे भूमि पेड़ पौधे पशु पक्षियों आदि के साथ अनुकूलन करना पड़ता है।

  1. The open sociological system of institution and status
  2. The open ethical system of group and value

समाज के प्रकार्य function of society समाज के अस्तित्व को बनाएं रखने के लिए आवश्यकताएँ:

  1. समाज को Ecological balance बनायें रखना चाहियें । जनसँख्या मृत्युदर जन्मदर सभी सही अनुपात मे ही रहने चाहयें है।
  2. सामाजिक नियंत्रण को बनाए रखना।
  3. अभिजात्य वर्ग (elite class) तथा सामान्य लोगों में सत्ता और स्वतंत्रता का उचित बंटवारा।
  4. व्यक्तियों तथा समूहों के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों को निपटाने की व्यवस्था की जायें।
  5. सदस्यों का उचित जीवन स्तर बनाए रखना।
  6. अंतिम रूप से समाज को सर्वोच्च मूल्यों की स्थापना करनी चाहिए।

समाज का महाविज्ञान (master science of society)

डॉ मुखर्जी ने समाजशास्त्र को एक महाविज्ञान बनाने का सुझाव दिया इस विज्ञान में मानव पारिस्थितिकी (human ecology) मूल्यों तथा प्रतीकों से संबंधित सिद्धांत व समाजशास्त्र के सिद्धांत सम्मिलित होंगे।

मूल्यों का सिद्धांत (theory of value)

  1. मूल्यों (values) पर डॉ मुखर्जी ने अपने विचार “the social structure of value” तथा “the dimentions of value” पुस्तको में दिए।
  2. the social structure of value” पुस्तक में मुखर्जी ने मूल्यों के समाजशास्त्रीय सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसमें मूल्यों की उत्पत्ति उद्विकास मूल्यों के मनोवैज्ञानिक नियमों तथा मूल्यों की सुरक्षा आदि का प्रतिपादन किया।
  3. तथा “the dimentions of value” पुस्तक में मुखर्जी ने मूल्यों के विभिन्न आयामों का उल्लेख किया। इसके अंतर्गत जीवविज्ञान मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र आदि में पाए जाने वाले मूल्यों की व्याख्या की

सामाजिक मूल्यों को परिभाषित करते हुए राधाकमल मुखर्जी लिखते है “मूल्य समाज द्वारा मान्यता प्राप्त इच्छाएँ तथा लक्ष्य (desires and goals) है जिनका आंतरीकरण सीखने या सामाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से होता है और जो प्राकृतिक अधिमान्यता तथा अभिलाषाएँ बन जाती है”

राधाकमल मुखर्जी ने सामाजिक मूल्यों के दो प्रकारों का उल्लेख किया है।

  1. साधन मूल्य (intrinsic value):साध्य मूल्य अमूर्त एवं परलौकिक होते हे इनका सम्बन्ध जीवन के उच्चतम आदर्शों एवं लक्ष्यों से होता है सत्यमेव जयते इसका उदाहरण है।
  2. साध्य मूल्य(instrumental value): स्वास्थ्य,संपत्ति,सुरक्षा,सत्ता प्रस्थिति पेशा आदि से सम्बंधित मूल्य साधन मूल्य है।

अपमूल्यों की अवधारणा (concept of disvalue)

समाज में मूल्यों के साथ साथ अपमूल्य भी पाएं जाते है अपमूल्यो से तात्पर्य है सामाजिक मान्यताओं, सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा करना,उन्हें अस्वीकार करना या उनके विरुद्ध आचरण करना । अपराध शोषण भ्रष्टाचार हिंसा आदि सामाजिक अपमूल्य ही है।

सामाजिक परिस्थितिकी (Social ecology)

सामाजिक पारिस्थितिकी से सम्बंधित विचार इन्होंने अपनी पुस्तक social ecology (1945) में दिए। मुखर्जी ने सामाजिक पारिस्थितिकी के दो पहलुओं का उल्लेख किया।

  1. Applied ecology (व्यवहारिक परिस्थितिकी)
  2. synecology (समुदाय परिस्थितिकी)

डॉ मुखर्जी कहते है कि पारिस्थितिकी के अंतर्गत प्राकृतिक अवस्थाओं का बहुत अधिक महत्व है जिनके साथ मानव को आज भी अनुकूलन करना पड़ रहा है जबकि उसने विज्ञान की सहायता से प्रकृति से विजय की घोषणा कर दी है।

प्रकृति पर विजय के लिए मानव को प्रकृति का अनुसरण तो करना ही होगा इसके अभाव में प्रकृति में असंतुलन पैदा हो जायेगा जिसके फलस्वरूप प्राकृतिक विपदाएं आने की संभावना रहती है।

प्रादेशिक समाजशास्त्र (Regional sociology) प्रादेशिक समाजशास्त्र से सम्बंधित विचार इन्होंने अपनी पुस्तक regional sociology (1926) में दिए। उन्होंने बताया किसी एक प्रदेश विशेष की प्राकृतिक विशेषताएं वहां के निवासियों के कार्यों प्रथाओं संस्थाओं मनोवृतियों अचारों एवं चरित्र को ढालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

सामाजिक पुनर्निर्माण (Social reconstruction) डॉ मुखर्जी कहते है कि किसी भी देश में जब सामाजिक विघटन और संघर्ष के कारण सामाजिक अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है तथा समाज समस्याग्रस्त हो जाता है तब यह आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक पुनर्निर्माण द्वारा उसे पुनः संगठित व व्यवस्थित किया जाये।

डॉ मुखर्जी ने सामाजिक राजनीतिक आर्थिक ओधोगिक सभी क्षेत्रो पुनर्निर्माण का उल्लेख किया।

Important books:

  • Social Sciences and Planning in India (1970).
  • The Three Ways: The Way of Transcend list-Religion as a Social Norm (1929)
  • Sociology and Mysticism (1931)
  • The Theory and Art of Mysticism (1937)
  • The Foundations of Indian Economics (1916)
  • The Rural Economy of India (1926)
  • Regional Sociology (1926)
  • The Land Problems of India (1927)
  • Introduction of Social Psychology (1928)
  • Field and Farmers of Oudh (1929)
  • Regional Balance of Man (1938)
  • Man and his Habitation (1940)
  • The Institutional Theory of Economics (1940)
  • Social ecology (1945)
  • Indian Working Class (1945)
  • The Dynamics of Morals: A Socio-Psychological Theory of Ethics (1950)
  • Inter-caste Tensions (Co-author) (1951)
  • Races, Lands and Food (1946)
  • The Social Function of Art (1948)
  • The Social Structure of Values (1949)
  • A General Theory of Society (1956)
  • The Philosophy of Social Science (1960)
  • Social Profiles of a Metropolis (1963)
  • The Dimensions of Values (1964)
  • The Destiny of Civilization (1964)
  • Flowering of Indian Art (1964)
  • District Town in Transition: Social and Economic Survey of Gorakhpur (with B. Singh) (1964)
  • The Oneness of Mankind (1965)
  • The Way of Humanism: East and West (1968)

D.P.MUKARJEE : 1894-1962

भारतीय समाज के विश्लेषण में मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य का प्रयोग करते हुए मुखर्जी ने द्वंदवाद के आधार पर भारतीय समाज को समझाया D.P. मुखर्जी की अध्ययन पद्दति मनोसमाजशास्त्रीय है ये स्वयं को Marxologist कहलवाना पसंद करते थे D.P.मुखर्जी का जन्म 1894 में बंगाल के मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ यह वह समय था जब बंगाल में बंकिम चन्द्र रविन्दरनाथ ठाकुर एवं शरत चन्द्र के साहित्य का पुनर्जागरण हो रहा था D.P. मुखर्जी राधाकमल मुखर्जी के समकालीन थे D.P. मुखर्जी ने पहला लेख “उद्योग में प्रजातंत्र” उस समय लिखा जब न तो प्रजातंत्र और न ही उद्योग का विकास हुआ था वो कहते थे “Shaping man is enough for me” 1922 में D.P. मुखर्जी ने Lucknow University में समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र के व्याख्यता का पद संभाला (30 वर्षों तक) R.K. मुखर्जी इन्हें यहीं मिले A.K. सरन तथा D.N. मजूमदार D.P.मुखर्जी के शिष्य रहे D.P.मुखर्जी Indian sociological association के संस्थापक सदस्य थे तथा international sociological association में भी प्रतिनिधित्व किया

इनकी समाजशास्त्रीय अवधारणा का तत्व व्यक्तित्व है ये द्वंद्वात्मक उपागम (Dialectical approach) के समर्थक थे D.P. मुखर्जी ने भारतीय इतिहास का संवादात्मक प्रक्रिया द्वारा विश्लेषण किया इन्होने बताया की परम्परा तथा आधुनिकता,उपनिवेशवाद तथा राष्ट्रवाद और व्यक्तिवाद तथा समूहवाद में परस्पर संवादात्मक प्रभाव होता है

दो परम्पराओं के मध्य संपर्क के पश्चात सर्वप्रथम सामाजिक मूल्यों एवं वर्ग हितों के बीच पारस्परिक संघर्ष होता है फिर उनमें समन्वय पैदा होता है

सामाजिक परिवर्तन का आधार : वाद- प्रतिवाद- संवाद

परम्पराओं में परिवर्तन के तीन सिद्धांत दिए – श्रुति, स्मृति और अनुभव

भारतीय परंपरा में अनेक प्रकार के विरोधों का उल्लेख किया तथा परम्पराओं का अध्ययन dialectical approach से किया

Little and great tradition:(लघु एवं वृहत परम्परा) : भारतीय समाज में दो प्रकार की परम्पराएं विधमान है लघु एवं वृहत वृहत परम्पराओं के स्त्रोत भारतीय शास्त्रीय ग्रन्थ है तथा इनका विस्तार सम्पूर्ण भारत में है लघु परम्पराएं अलिखित तथा सिमित क्षेत्र में होती है इनके स्रोत संस्कृत साहित्य में नहीं है मुखर्जी कहते है इन दोनों परम्पराओं के मध्य संघर्ष पाया जाता है जिससे लघु परम्पराएं जन्म लेती है भारत की ब्राह्मण परम्पराओं के विरोध स्वरुप ही नानक रामदेव तुका राम कबीर आदि ने सुधारात्मक संप्रदाय चलाये

Dialectics series of Renaissnace : D.P. मुखर्जी भारतीय परम्पराओं के अध्ययन के लिए भारत में हुये पुनर्जागरण आन्दोलनों एवं प्रयासों का अध्ययन करने का भी सुझाव दिया उनकी मान्यता है की भारत में पुनर्जागरण का प्रारम्भ 19 वीं सदी में ही नहीं हुआ बल्कि यह वैदिक काल से चला आ रहा है19 वीं सदी का पुनर्जागरण भारत में पुनर्जागरण की श्रंखला की अंतिम कड़ी है अन्य वैदिक आर्य काल बुद्ध काल गुप्त काल हर्ष एवं विक्रमादित्य काल मुस्लिम (भक्ति काल) तथा ब्रिटिश काल है इन्होने इन कालों की परम्पराओं तथा उनमें होने वाले संघर्षो अनुकूलन एवं परिवर्तन की विवेचना प्रस्तुत की

Dialectics between high and low tradition : Turner ने परम्पराओं को उच्च एवं निम्न में विभक्त किया है मुखर्जी कहते है ये दोनों परम्पराएं भी द्वन्द से गुजरती है उच्च परम्पराएं परिवर्तन के दौरान नीचे धरातल में जाती है तथा निम्न परम्पराएं उच्च शिखर की ओर अग्रसर होती है इस प्रकार से समाज में परम्पराओं का आरोहण एवं अवरोहण क्रम चलता रहता है

Dialectics between endogenous and exogenous tradition: आंतरिक और बाह्य परम्पराओं के मध्य संघर्ष भारत में प्राचीन काल से ही है आक्रमणकारियों के रूप में शक हूण कुषाण मंगोल मुसलमान और अंग्रेज आते रहे है जिनकी परम्पराएं भारत की मूल परंपराओं से अलग थी इन परम्पराओं का संघर्ष भारतीय परम्पराओं से हुआ और इसके फलस्वरूप भारतीय परम्परा परिवर्तन अनुकूलन एवं समन्वय की प्रक्रिया से गुजरती है

important books

  1. Basic concept of sociology 1932
  2. Modern Indian culture 1942
  3. Introduction to Indian music 1945
  4. Problem of Indian youth 1946
  5. View and counter view 1946
  6. Diversities 1948 (भारतीय परम्परा पर पश्चिम के प्रभाव को बताया)
  7. Sociology of Indian culture 1942
  8. Indian tradition and social change

GOVIND SADASHIV GHURYE 12 DEC 1893-1983

  • बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग स्थापित करने का श्रेय Petrick geedes (1919 में) दिया जाता है। घुर्ये पेट्रिक गेड्स के संपर्क मे बम्बई विश्वविद्यालय में ही आये थे । घुर्ये ने पेट्रिक गेड्स के नेतृत्व में एक नगरीय केन्द्र के रूप में बम्बई विषय पर एक लेख लिखा जिसके आधार पर घुर्ये को विदेश में पड़ने की छात्रवर्ती मिली और वे लंदन चले गए । वहां पर कुछ समय “लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स” में L.T.Hobhouse के साथ काम किया तत्पश्चात उन्होंने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के prof. रिवर्स तथा उनकी मृत्यु के पश्चात् A.C. हेडन के निर्देशन में अपना शोधकार्य पूरा किया ।
  • घुर्ये को भारत में समाजशास्त्र को संस्थागत रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है।  बम्बई विश्वविद्यालय में 1924 में सर्वप्रथम स्नातकोत्तर स्तर पर समाजशास्त्र विभाग में HOD बने तथा 1959 (35 वर्ष) तक इस विभाग में कार्य किया । 
  • घुर्ये को पहली बार पहचान उनके द्वारा जाति तथा प्रजाति पर किये गए बेहतरीन कार्य की वजह से मिली। जनजाति अथवा आदिवासी संस्कृति पर घुर्ये ने कार्य किया तथा वैरियर एल्विन के साथ हुए वाद विवाद ने इन्हे समाजशास्त्र से बाहर भी पहचान दी । (1930-40 के दौरान)
  • कई ब्रिटिश शासक तथा मनोविज्ञानी भारतीय जनजातियों को हिन्दू समाज से अलग मानते थे उन्हें लगता था हिन्दू सोसाइटी उनका शोषण करती है तथा आगे भी करेगी अतः उनका कर्तव्य है की वो उनको संरक्षण दे । घुर्ये राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे तथा उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतीय जनजातियों को “पिछड़े हिन्दू” समूह के रूप में पहचाना जाये न की एक भिन्न सांस्कृतिक समूह के रूप में ।
  • घुर्ये की शेक्षिक साख उनके द्वारा केम्ब्रिज में किये गये doctorate के शोध निबंध के आधार पर बनी जो आगे चलकर 1932 में “caste and race in india” के नाम से प्रकाशित हुआ ।
  • रिजले ने जाति तथा प्रजाति पर शरीरिक विशिष्टताओं के आधार पर सिद्धांत प्रतिपादित किये थे जिसकी घुर्ये ने आलोचना की थी। रिजले का मुख्य तर्क था जाति का उदभव प्रजाति से हुआ होगा क्योंकि विभिन्न जाति समूह किसी विशिष्ट प्रजाति से सम्बन्धित लगते है। उच्च जातियां आर्य तथा निम्न जातियां अनार्य या मंगोल या अन्य प्रजातियों से मिलती जुलती है। रिजले के अनुसार निम्न जातियां ही भारत की वास्तविक आदिनिवासी जातियां है उन्हें आर्यों द्वारा दबाया गया जो भारत में कहीं बाहर से आकर बसे थे।
  • घुर्ये रिजले से अंशतः सहमत थे वो मानते थे उच्च जातियां आर्य तथा निम्न जातियां अनार्य केवल उत्तर भारत के लिए सही हो सकता है। सिंधु गंगा के मैदान को छोड़कर विभिन्न प्रजातीय वर्गों का काफी लम्बे समय से मेल मिलाप था अतः प्रजातीय शुद्धता केवल उत्तर भारत में ही बची थी क्योंकि वह अंतर्विवाह निषिद्ध था।
  • इन्होने Indian Sociological Society (ISA) की स्थापना की । Ghurye ISA के President 1951 to 1966 तक रहे तथा Sociological bulletin (March 1952) नामक जर्नल भी निकाला ।
  • जाति व्यवस्था की घुर्ये ने 6 विशेषताए बतायी
  1. जाति एक ऐसी व्यवस्था है जो खंडीय विभाजन पर आधारित है जाति का निर्धारण जन्म से होता है ।
  2. जातियों का सोपानिक विभाजन ।
  3. जातियां सामाजिक अंतःक्रियाओं पर प्रतिबन्ध लगाती है।
  4. भिन्न जातियों के भिन्न अधिकार और कर्तव्य होते है।
  5. जाति व्यवसाय को भी सीमित करती है
  6. जाति अन्तः विवाही होती है।
  • घुर्ये ने book- sex habit of middle class people (1938) में आधुनिक सर्वेक्षण विधि सांख्यिकीय तकनीक तथा book mahadev kolis (1957) के अध्ययन में क्षेत्र कार्य विधि का प्रयोग किया ।
  • घुर्ये द्वारा भारत विधशास्त्र परिप्रेक्ष्य का सर्वाधिक प्रयोग उनके द्वारा किये गये धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन में दृष्टिगत होता है।
  • Religion of india पुस्तक में मैक्स वेबर ने धर्म व अर्थव्यवस्था के मध्य संबंधों के अपने विश्लेषण में हिन्दू धर्म को अतार्किक रूप से प्रस्तुत किया था तथा इससे औद्योगिक पूंजीवाद में बाधक बताया तब घुर्ये द्वारा हिन्दू धर्म का सकारात्मक विश्लेषण किया गया।
  • अपनी पुस्तकों जैसे The indian sadhu, gods and man, religious consciousness ,vedic india आदि के माध्यम से भारतीय धार्मिक विश्वास तथा परम्पराओं की विस्तार से चर्चा की।

vedic india पुस्तक में ऋग्वेद के आधार पर मैक्स वेबर के विचारों के विपरीत यह बताया की वैदिक कालीन भारतीय समाज में आर्थिक एवं सामाजिक सांस्कृतिक पक्षों के मध्य प्रकार्यात्मक सम्बन्ध विधमान रहा है।

caste and race in india तथा caste class and occupation में क्षेत्र कार्य के साथ साथ प्राचीन ग्रन्थोंके आधार पर जाति की उत्पत्ति विशेषताओं आदि को समझाया। साथ ही बताया कि जाति व्यवस्था की उत्पत्ति हेतु इंडो आर्यन ब्राह्मण है।

इन्होनें जाति व्यवस्था में गतिशीलता को भी स्वीकार किया तथा जनजातियों में हिन्दुकरण की अवधारणा दी।

  • Family and kin in indo-Europian culture तथा Two brahmanical institution :Gotra and charans में Indological approach से निष्कर्ष निकाले।
  • भारत में नगरीकरण के उद्धभव को समझाया इसे Epic Brahmanism के फलस्वरूप बताया ।
  • घुर्ये ने भारतीय कला नृत्य वेशभूषा पर भी अध्ययन प्रस्तुत किये।
  • D.P. मुखर्जी ने घुर्ये के लिए कहा था केवल ghurye आज के Indian sociologist है बाकि सब sociologist in india है।

Ghurye द्वारा लिखी गयी महत्वपूर्ण पुस्तकें

(1932 ) Caste and race in India

(1943).  The aborigines, so-called, and their future

(1951).  Indian customs, Bharatiya vesabhusa

(1952).  Race relations in negro africa

(1995) [1953].  Indian sadhu

(1956).  Sexual behavior of American females

 (1957).  Caste and class in India

(1958).  Bharatanatyam and its customs

(1960). After a century and a quarter:lonikand then and now

(1962).  cities and civilization

(1962).  God and men

(1962).  Family and kin in Indo-European culture

(1963).  The Mahadev Kolis

(1963).  anatomy of a rururban community

(1963).  anthropo-sociological papers

 (1965).  religious consciousness

 (1968). Social tension in India

 (1973). I and others exploration

(1974). Whether India

(1977). Indian acculturation: Agastya and Skanda

(1978). India recreates democracy

1979). Legacy of Ramayana

(1979).  vedic india

 (1980).  The burning cardron of north east india

(1980) [1963].  The scheduled tribes of India

2005).  Rajput Architecture